रविवार, 10 मई 2015

नवप्रभात लेखक- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.... अपना मन मित्र बना कि सारी दुनिया अपनी हो जाती है। फिर परायेपन के लिये कोई अवकाश नहीं रह पाता।

चन्द्रप्रभ परमात्मा का स्तवन गा रहा था। आनंदघनजी म. ने इस स्तवन में परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा का सागर उंडेल दिया है।परमात्मा क्या मिले... जीवन का लक्ष्य मिल गया! जैसे किसी प्यासे को पानी मिला!जैसे किसी अंधे को आंख मिली! जैसे किसी मूरत में प्राण आ गये!अपने इन्हीं अहोभावों की अभिव्यक्ति उन्होंने स्तवन की आंकडी में की है।आंकडी है-सखि मने देखण दे, चन्द्रप्रभु मुख चन्द, सखि मने देखण दे!