बुधवार, 19 अगस्त 2015

NAVPRABHAT एक संत के पास एक व्यक्ति पहुँचा। वह एकान्त में कुछ बातें करना चाहता था। उसने कहा- महात्मन्! मैं आपको कुछ गोपनीय बात बताना चाहता हूँ।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
एक संत के पास एक व्यक्ति पहुँचा। वह एकान्त में कुछ बातें करना चाहता था। उसने कहा- महात्मन्! मैं आपको कुछ गोपनीय बात बताना चाहता हूँ। एक व्यक्ति जो आपके सामने बहुत मीठी बातें करता है, पर वह अन्य लोगोें के सामने आपके बारे में गलत बात करता है। मैं आपको विस्तार से सारी बातें बताना चाहता हूँ।
संत ने कहा- रूको! तुम मुझे जो बातें बताना चाहते हो, पहले तुम उन्हें तीन छलनियों से छानो, फिर मुझे सुनाओ।
पहली छलनी का नाम है- सच्चाई! जो बात तुम बताना चाहते हो, वह सही है। क्या तुम आश्वस्त हो उसकी सच्चाई के प्रति! तुमने स्वयं सुनी है, या सुनी सुनाई बात बता रहे हो। उसने कहा- आपका कहना सही है, मैं सुनी सुनाई सुना रहा हूँ।
सच्चाई की छलनी से तुम्हारी बात छन नहीं सकती। इसलिये तुम्हारी बात व्यर्थ है, संत ने कहा।
लेकिन मैं शेष दोनों छलनियों के बारे में जानना चाहता हूँ।
दूसरी छलनी का नाम है- अच्छाई! जो बात तुम बताना चाहते हो, वह अच्छी है या बुरी! यदि बुरी है तो मेरे किसी काम की नहीं। अच्छी है तो सुनने के लिये तैयार हूँ।
वह बोला- अच्छी तो नहीं है। क्योंकि निंदा और छल की बात है।
अब तीसरी छलनी के बारे में सुनो। तीसरी छलनी का नाम है- उपयोगिता!
तुम जो बात मुझे बताने जा रहे है, वह मेरे लिये उपयोगी है या नहीं। व्यर्थ बात सुनने का अर्थ है, अपने कीमती समय और मूल्यवान् बुद्धि को नष्ट करना।
जो बात मेरे भविष्य के लिये उपयोगी बने। जो मुझे ऊँचाईयों की ओर ले जाये, मैं वही सुनना चाहूँगा।
संत की बात सुन कर वह व्यक्ति सम्हल गया। उसने क्षमायाचना की और तीन छलनियों के प्रयोग का संकल्प लेकर विदा हो गया।
ये तीन छलनियाँ हमारे जीवन को मूल्यवान् बनाती है। हमारा मन मस्तिष्क कोई कूडाघर तो है नहीं कि उसमें सब कुछ बिना सोचे समझे डाल दिया जाय। किसी भी बात को मस्तिष्क तक पहुँचाने से पहले उसे छान लेना बहुत जरूरी है। संकल्प करें कि हम हर बात, घटना और वातावरण को इन तीन छलनियों से छान कर ही ग्रहण करेंगे।

NAVPRABHAT हमारा मन बडा ही टेढा है। वह सदा अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ समझता है... समझाने का प्रयास करता है। वह सदा सदा दूसरों को अपने से न्यून तोलता है।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
हमारा मन बडा ही टेढा है। वह सदा अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ समझता है... समझाने का प्रयास करता है। वह सदा सदा दूसरों को अपने से न्यून तोलता है। बराबरी में उसे रस नहीं है। उसे सदा अधिक ऊँचाई में ही रस है। वह केवल और केवल श्रेय लेना जानता है।
यह उसका अहं है। उसकी हर क्रिया अपने अहं से जुडी होती है। वह हारता है, तब भी अपने अहं को पोषण देने के तर्क खोज लेता है। जीत में तो वह सातवें आसमान की यात्रा करना शुरू कर देता है।
अहंकारी व्यक्ति हारने पर भी उसे जीत की भाषा में व्यक्त करता है।
निरहंकारी व्यक्ति जीतने पर भी उसका श्रेय दूसरों को देने में आनन्द का अनुभव करता है।
क्या किसी ऐसे वृक्ष को देखा, जो फल देने के बाद अपने अहंकार का ढिंढोरा जगत में पीटता हो! वृक्ष की शाखाओं प्रशाखाओं पर फलों का आना, उसकी जीवन यात्रा की विजय है। उसने वह काम कर लिया, जिसके लिये वह है! उसे मंजिल मिल गई!
पर वह कभी यह विज्ञापन नहीं करता कि यह मैंने किया! वह समूचे अस्तित्व के सहयोग को स्वीकार करता है। बल्कि अस्तित्व को ही श्रेय देता है।
किसी पेड को पूछो तो वह जवाब देगा- मैंने बीज के रूप में अपनी यात्रा का प्रारंभ किया था। माटी ने अपनी गोद में मुझे सम्हाला। पानी ने मुझे गति दी। हवाओं ने मुझमें दृढ़ता भरी। सूर्य की रोशनी ने मुझे सहारा दिया। माली ने मुझे सुरक्षा दी और मैंने फल दे दिया।
फल भले मैंने दिया पर परिणति तक पहुँचाने में इन सबका पूरा पूरा योगदान है।
क्या हमारा पुरूषार्थ ऐसा ही नहीं है! यह रहस्य समझ में आते ही अहंकार कपूर की तरह उड जाता है। जीवन सरल.. निष्कपट... सहज.. बन जाता है।

NAVPRABHAT प्यास का प्यास के रूप में अनुभव होते ही प्यास बुझ जाती है। और गहराई से सोचेंगे तो पायेंगे कि मैं प्यासा हूँ ही नहीं।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
हम सभी एक प्यास लिये जी रहे हैं। हर आदमी प्यासा है... इसी लिये दौड रहा है तृप्ति के लिये।
पर तृप्ति हो नहीं पाती। प्यास बुझ नहीं पाती।
जहाँ वह सोचता है कि मेरी प्यास यहाँ बुझेगी।
पास जाकर... उसे पाकर पाता है कि मेरी प्यास बुझी नहीं, बल्कि और ज्यादा भडक उठी है। मैं अपने आप को वहीं का वहीं खडा पाता हूँ।
क्या कारण है कि प्यास बुझ नहीं रही है।
कहीं कोई समस्या तो है?
या तो प्यास झूठी है। या प्यास बुझाने का आधार झूठा है।
सच तो यह है कि हमने कभी अपनी प्यास का विश्लेषण किया नहीं है।
और न ही उस प्यास को बुझाने में समर्थ ऐसे अमृत का विश्लेषण किया है।
हम अपनी प्यास को संसार की सामग्री से जोडते हैं और उसी से बुझाने का प्रयास करते हैं।
सामग्री की अल्पता हमें प्यासा बना देती है पर सामग्री की अधिकता हमारी प्यास बुझा नहीं पाती।
बाहर से मैं खिला खिला दिखता हूँ। पर अन्तर में अपने आपको बुझा बुझा ही पाता हूँ।
हमारी प्यास कुछ अलग है। थोडी गहरी है। यह इधर उधर भागने से मिटने वाली नहीं है। सच तो यह है इधर उधर हाथ पाँव मारने से तो हम अपनी प्यास से और ज्यादा दूर ही जायेंगे।
यह प्यास बाहर भागने से नहीं, अपितु अन्तर में ठहरने से बुझने वाली है।
यह प्यास तो बाहर देखने में नहीं, अपितु अन्तर में डूब जाने से बुझने वाली हैै।  प्यास का प्यास के रूप में अनुभव होते ही प्यास बुझ जाती है।
और गहराई से सोचेंगे तो पायेंगे कि मैं प्यासा हूँ ही नहीं।
बल्कि यों कहें कि मैं तो तृप्त हूँ! पूर्ण तृप्त हूँ!

NAVPRABHAT यदि मैंने ऐसा निर्णय न किया होता तो कितना अच्छा होता! यह सोच कर मैं दुखी हो गया। दु:ख से भरे उसी मन से विचार करने लगा- जो निर्णय नहीं हुआ, वो निर्णय होता तो कितना अच्छा होता!

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
मैं खाली बैठा था। देर तक पढते रहने से मस्तिष्क थोडी थकावट का अहसास करने लगा था। मैंने किताब बंद कर दी थी। आँखें मूंद ली थी। विचारों का प्रवाह आ... जा रहा था। बिना किसी प्रयास के मैं उसे देख रहा था।
मेरा मन उन क्षणों में मेरे ही निर्णयों, विचारों और आचारों की समीक्षा करने लगा था। किसी एक निर्णय पर विचार कर रहा था। उस निर्णय की पूर्व भूमिका, निर्णय के क्षणों का प्रवाह और उस निर्णय का परिणाम मेरी आँखों के समक्ष तैर रहा था।
मुझे अपने उस निर्णय से संतुष्टि न थी। क्योंकि जैसा परिणाम निर्णय लेने से पहले या निर्णय करते समय सोचा या चाहा था। वैसा हुआ नहीं था। वैसा हो भी नहीं सकता था। क्योंकि चाह तो हमेशा लम्बी और बडी ही होती है।
मैं विचार करने लगा- यदि मैंने ऐसा निर्णय न किया होता तो कितना अच्छा होता! यह सोच कर मैं दुखी हो गया। दु:ख से भरे उसी मन से विचार करने लगा- जो निर्णय नहीं हुआ, वो निर्णय होता तो कितना अच्छा होता! और मैं उस अच्छेपन की कल्पनाओं में खो गया। जो हुआ नहीं या जिसे पाया नहीं, मैं उसकी रंगीन कल्पनाओं में डूब गया।
थोडी देर बाद जब मैं वर्तमान के धरातल पर उतर आया और तटस्थ भावों से अपने इन विचारों की समीक्षा करने लगा।
मैं अपने मन से कहने लगा- जो हुआ नहीं, जो हो सकता नहीं, उसकी कल्पना करके क्यों दु:खी होता है। और दु:ख का कारण क्या है! हिन्दी भाषा का ‘तो’ बहुत दु:खी करता है। ऐसा हुआ होता तो... ऐसा किया होता तो....!
कल एक श्रावक आया था। वह कह रहा था- मेरे दादाजी के पास सैंकडों बीघा जमीन थी। आज से 30-40 साल पहले 50 रूपये बीघे के भाव से बेच दी। आज यदि वो जमीन हमारे पास होती तो अरबों रूपये हमारे पास होते। मैंने सोचा- मेरी सोच भी तो ऐसी ही है। उसकी जमीन के बारे में है, मेरी अन्य निर्णयों के बारे में! पर दिशा तो वही है। यह दिशा केवल और केवल दु:ख की ओर ही जाती है।
सच तो यह है- जो हो गया, सो हो गया। उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता। अतीत को बदला नहीं जा सकता। इसलिये अपने वर्तमान से परम संतुष्टि का अनुभव करो ताकि भविष्य सुधरे।

Navprabhat देवगण तो परेशानियां दूर करते हैं। जबकि माता अंबिका ने तो उसे दर दर घूमने के लिये मजबूर कर दिया।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी .सा.

प्रतिदिन प्रतिक्रमण के बाद में परम्परा से दासानुदासा इव सर्वदेवा: के उच्चारण से दादा गुरूदेव की स्तुति की जाती है।
यह स्तुति किसी विद्वान् पंडित या किसी समर्पित शिष्य की रचना नहीं है।
यह रचना है माता अंबिका की! नागदेव के अन्तर की जिज्ञासा उसे माता अंबिका के चरणों में ले आई थी। वह जिज्ञासु था युगप्रधान के बोध का!
वह पिपासु था युगप्रधान के दर्शन का!
वह इच्छुक था युगप्रधान के चरणों में आलोटने का!
पर जब उसकी तप साधना पूर्ण हुई तो माता अंबिका ने सीधे सीधे उसके सवाल का जवाब नहीं दिया! ऐसा क्यों! इस प्रश्न पर मेरा मन बहुत अटका है। समाधान नहीं मिला।
देवगण तो परेशानियां दूर करते हैं। जबकि माता अंबिका ने तो उसे दर दर घूमने के लिये मजबूर कर दिया।
सीधे सीधे युगप्रधान का नाम बता देते तो क्या समस्या होती! तो कम से कम वह सीधे सीधे आचार्य जिनदत्तसूरि के पास चला जाता और अपने अधूरे और प्यासे मन को पूर्ण और तृप्त कर देता।
ओह! अचानक आज कारण समझ में आया।
माता अंबिका सीधे सीधे नाम बता देती। तो नागदेव के पास उसका प्रमाण क्या होता! उसकी सत्य घोषणा पर भी प्रश्न चिह्न उपस्थित होने की संभावना बन जाती।
इसलिये नाम सीधे सीधे नहीं बता कर गुप्त लिपि में लिखा। क्योंकि माता जानती थी कि मेरी इस लिपि को वही पढ सकता है, जो अतिविशिष्ट एवं परम साधना से संपन्न हो। और उस समय दादा गुरूदेव आचार्य जिनदत्तसूरि के अतिरिक्त और कोई ऐसा साधक था नहीं।
और यदि किसी दूसरे साधना संपन्न साधु ने पढ भी लिया तो क्या! नाम तो मैंने वही लिखा है, जो युगप्रधान है।
इसलिये माता ने यह नहीं कहा कि जो इसे पढ लेगा, वह युगप्रधान होगा। बल्कि यह कहा कि मैंने युगप्रधान का नाम इसमें लिख दिया है..। जाओ और पढवा लो। मैं जानती हूँ कि इसे पढने में या इसे पढने हेतु सुगम बनाने में वे ही महापुरूष सक्षम है, जो युगप्रधान है।
रहस्य-बोध प्राप्त कर मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया।

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

NAVPRABHAT अपने मन को मित्र बना कर ही उससे काम लिया जा सकता है। अपना मन मित्र बना कि सारी दुनिया अपनी हो जाती है। फिर परायेपन के लिये कोई अवकाश नहीं रह पाता।

नवप्रभात
लेखक- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.

चन्द्रप्रभ परमात्मा का स्तवन गा रहा था। आनंदघनजी म. ने इस स्तवन में परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा का सागर उंडेल दिया है।
परमात्मा क्या मिले... जीवन का लक्ष्य मिल गया! जैसे किसी प्यासे को पानी मिला!
जैसे किसी अंधे को आंख मिली! जैसे किसी मूरत में प्राण आ गये!
अपने इन्हीं अहोभावों की अभिव्यक्ति उन्होंने स्तवन की आंकडी में की है।
आंकडी है-
सखि मने देखण दे, चन्द्रप्रभु मुख चन्द, सखि मने देखण दे!
इस आंकडी में स्तवन का पूरा निचोड आ गया है। इस मुखडे का अर्थ हृदय में उतर जाये और यह अर्थ मेरा अपना हो जाये... यह अर्थ मेरे रोम रोम से आने लग जाये... तो समझना साधना पूर्णता को प्राप्त हुई।
कौन आनंदघन को रोक रहा है... जो वे कहते हैं- मुझे देखने दे... मुझे दर्शन करने दे...!
कोई तो है जो बाधा बना है। कोई तो है जो उन्हें रोक रहा है! कौन हो सकता है वो!
हाँ! मन है जो उन्हें रोक रहा है।
तो फिर प्रश्न होगा- दर्शन करने वाला कौन है! दर्शन करने को उत्सुक कौन है!
तो उत्तर होगा- मन है जो परमात्मा को देखना चाहता है।
ओह! मैं तो मन को समझ ही नहीं पा रहा हूँ। रोकने वाला भी मन... चाहने वाला भी मन... । तो एक ही मन डबल रोल कैसे कर रहा है!
बिल्कुल ठीक कहा- मन डबल रोल कर रहा है। हर व्यक्ति का मन करता है। मन की इस लीला को समझने के लिये मन का विभाजन करना होगा। यों तो मन के लाखों प्रकार है। पर संक्षेप में समझना हो तो हमें मन के दो भेद करने होंगे। एक अच्छा मन, दूसरा बुरा मन! अच्छे और बुरे की व्याख्या में समस्त प्रकार के मन आ गये।

आनंदघन योगी का अच्छा मन अपने बुरे मन से कहता है। डांट कर नहीं, बल्कि प्रेम से! उसे सखा... दोस्त बना कर! क्योंकि दोस्त बनाये बिना वह आपका काम नहीं कर सकता। और उन्हें अपना काम करना है। परमात्मा से मिलना है पर क्या करें, वह बुरा मन बार बार बीच में आकर... नये नये प्रस्ताव रख कर बाधा बन जाता है। इस लिये उसे मना कर परमात्मा से मिलना चाहते हैं। अपने मन को मित्र बना कर ही उससे काम लिया जा सकता है। अपना मन मित्र बना कि सारी दुनिया अपनी हो जाती है। फिर परायेपन के लिये कोई अवकाश नहीं रह पाता।