जीवन में
प्रतिक्षण घटनाऐं घटती रहती है। हमारे चारों ओर हमसे संबंधित... असंबंधित तरह तरह
की अच्छी बुरी घटनाओं का जाल प्रतिक्षण फैलता जाता है।
अपनी आंखें देखती
है। कान सुनते हैं। मन सोचता है। दिमाग प्रतिक्रिया करता है।
घटना कैसी है,
यह महत्वपूर्ण नहीं है।
उस घटना को हमने
किस नजरिये से देखा, यह महत्वपूर्ण
है।
हमसे किसी न किसी
रूप में जुडी घटना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
देखना तो होगा
ही... उस पर विचार भी होंगे ही...!
घटना तो घट गई।
उसे हम किसी भी कींमत पर ‘अघटित’ नहीं कर सकते।
चिंतन यह करना है
कि मैं उसे किस रूप में लेता हूँ।
मैं किसी भी घटना
को सकारात्मक दृष्टि से भी देख सकता हूँ... नकारात्मक दृष्टि से भी!
मैं उस घटना पर
राग द्वेष करके कर्म बंधन भी कर सकता हूँ।
और समता भाव में
रह कर बंधन से दूर भी रह सकता हूँ।
यह सब अपनी सोच
पर निर्भर है।
मुझे अपनी दृष्टि
में ‘स्वार्थ’ पैदा करना जरूरी है। स्वार्थ अर्थात् अपना हित!
अपनी आत्मा का हित!
मेरी आत्मा का
हित किसमें है, यह विश्लेषण करना
चाहिये।
आत्म-हित जिसमें
हो, वैसा चिंतन मुझे हर घटना
पर करना चाहिये।
घटना भले निंदनीय
हो, पर निंदा करने से घटना
अभिनंदनीय नहीं हो जायेगी। हाँ... आत्मा का अहित जरूर होगा।
अपने प्रति
जागरूकता का प्रतिक्षण विकास करना है।