शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

नवप्रभात- परमात्म-प्रेम --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.

कदम मंदिर की ओर बढ गये हैं। परमात्मा की भक्ति कर रहा हूँ। अकेला हूँ। स्तवन गा रहा हूँ। धीमी आवाज में गा रहा हूँ। मैं ही गाने वाला हूँ... मैं ही सुनने वाला हूँ! पर आज हृदय गा रहा है। आज ही तो सही रूप से जाना है कि मेरे परमात्मा कैसे है
सुनता तो हमेशा था। पर समझ पहली बार आया। भक्ति भी बहुत की थी, पर आज का अनुभव अलग था। हमेशा मंदिर आता था, पर कुल परम्परा के कारण! कुछ मांगने...! अपने संसार को को सुखी बनाने की प्रार्थना लिये...!
पर आज भावों की नई दुनिया में मैंने प्रवेश किया था। आज भक्ति का रंग अनूठा था। लगता था कि मैं ही बदल गया हूँ।

क्योंकि आज ही मुझे परमात्मा के दिव्य स्वरूप का बोध हुआ है। ऐसे परमात्मा को पाकर आज मैंने परम धन्यता का अनुभव किया है। आज मेरे अन्तर में प्रेम प्रकट हुआ है। परमात्मा को एकटक देख रहा हूँ। पलक को झपकाना अच्छा नहीं लग रहा है। मन करता है देखता रहूं अनंत काल तक!
प्रेम तो संसार में मैंने कईयों से किया था। पर मेरा मन जानता है कि करता कम था, पाने की चाह ज्यादा थी। अपेक्षाओं की विशाल दुनिया मेरे मन में थी। जिनसे प्रेम करता था, उनसे ज्यादा चाहता था। नहीं मिलता तो रोष होता... मेरी इच्छा के अनुसार नहीं मिलता तो मन उसे ठुकरा भी देता।
उस प्रेम में स्वार्थ और सौदा था। यह आज जाना था। आज जाना था कि प्रेम करने योग्य केवल और केवल परमात्मा है। परमात्मा के सिवाय ऐसा कोई व्यक्ति या तत्व नहीं है, जिनसे प्रेम किया जा सके।
क्योंकि परमात्मा का प्रेम मेरी अपेक्षाओं से कई गुणा मुझ पर बरस रहा है। मैं प्रेम नहीं करता था, तब भी उनका प्रेम तो मुझे प्राप्त ही था।
और मेरा रोम रोम परमात्मा की भक्ति में डूब गया है। मुझे श्रेणिक महाराजा का वह उदाहरण याद आया है। स्वर्गवास के बाद जब उनका अग्निसंस्कार हो रहा था। हडि्डयां जब चटक रही थी, तब उनमें से वीर वीर की ध्वनि रही थी।

मैं सोचता हूँ- परमात्मा महावीर के प्रति क्या प्रेम होगा..! क्या भक्ति होगी..! और मैं प्रार्थना करता हूँ- प्रभो! मुझे ऐसा प्रेम देना... ऐसी भक्ति देना...!