मंगलवार, 28 अगस्त 2012

38. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

काला, घना काजल से भी गहरा अंधेरा है! दांये हाथ को बांये हाथ का पता नहीं चल पा रहा है, इतना अंधेरा है। और मुश्किल यह है कि यह द्रव्य अंधेरा नहीं है। द्रव्य के अंधेरे को मिटाने के लिये एक दीया काफी है। एक दीपक की रोशनी हमारे कक्ष में उजाला भर सकती है।
यह अंतर का अंधेरा है। आँखों में रोशनी होने पर भी अंधेरा है। सूरज के प्रकाश में भी अंधेरा है। किधर चलें, कहाँ चलें, किधर जायें, क्या करें..... आदि आदि प्रश्न तो बहुतेरे हैं, पर समाधान नहीं है। अंतर के अंधेरे से जूझना भी कोई आसान काम नहीं है। जितना जितना उस बारे में सोचता हूँ, उतना ही ज्यादा मैं उसमें उलझता जाता हूँ।
बैठा रहता हूँ माथे पर चिंता की लकीरें लिये! पडा रहता हूँ शून्य चेहरे के साथ! उदास होकर बैठ जाता हूँ हाथ पर हाथ धर कर! रोता रहता हूँ अपने को, अपनी तकदीर को!
लेकिन मेरे भैया! यों हाथ पर हाथ धरके बैठने से क्या होगा? रोने से रोशनी तो नहीं मिलेगी न!
इसलिये उठो! जागो! पुरूषार्थ करो!
रोओ मत! थोडा हँसो! अपने भाग्य पर हँसो! और अपनी हँसी से यह दिखाओ कि मैं तुमसे हार मानने वाला नहीं है। अपनी हँसी से पुरूषार्थ का भी स्वागत करो।
अपने बिगडे भाग्य पर रोने के बजाय पुरूषार्थ में प्रचंडता लाओ! और पुरूषार्थ के बल पर भाग्य को अंगूठा दिखाने का प्रयास करो। पुरूषार्थ से भाग्य की दिशा बदल दो। तुम्हारे जीवन में हजारों सूर्यों की रोशनी उतर आयेगी।
तुम जड नहीं हो, जो पडे रहो।
तुम चैतन्य हो, जो अनंत शक्ति का स्रोत है। बस! उस शक्ति का परिचय करना है, उसे प्रकट करने का साहस करना है।
बांसुरी भी पडे पडे नहीं बजा करती! वीणा के तार भी अपने आप नहीं झनझनाते! मृदंग में से माधुर्य-रसगंगा भी थाप खाकर ही बहने लगती है।
तुममें शक्ति है, उसे अभिव्यक्ति देनी है। बीज को जलवायु देनी है ताकि वह विराट् वृक्ष का रूप पा सके।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

37. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

अपने घर की खोज हम लम्बे समय से कर रहे हैं। पर मिला नहीं है। इसलिये नहीं कि दूरी बहुत है। दूरी तो जरा भी नहीं है। दूरी तो मात्र इतनी है कि देखा कि पाया!
एक कदम आगे बढाया कि मंज़िल मिली!
हाथ लंबा किया कि द्वार पाया!
दूरी अधिक नहीं है, फिर भी अभी तक अपना घर मिला नहीं है। इसलिये भी नहीं कि हम चले नहीं है। हम बहुत चले हैं। और इतना चले हैं कि थक कर चूर हो गये हैं। गोल गोल चक्कर न मालूम कितने काटे हैं। यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भागने, दौडने में जिन्दगियाँ पूरी हो गई है। जिसे खोजने चले हैं, उसे पाने के लिये तो एक जिंदगी ही पर्याप्त है। यह विडम्बना ही है कि जिसे एक ही जिंदगी में, एक ही जिंदगी से पाया जा सकता है, उसे बहुत सारी जिन्दगियाँ खोने पर भी नहीं पा सके हैं।
चले बहुत हैं, फिर भी नहीं पाया है तो इसका अर्थ है कि कहीं कोई समस्या है! कहीं कोई गलती हो रही है।
दिशा भी सही है। चले भी हम सही दिशा में है। किन्तु बीच में अटक गये हैं। थोडा भटक गये हैं। क्योंकि बीच में बहकाने वाले बहुत दृश्य है। सुन्दर बगीचे हैं। कलकल बहते झरणे हैं।
आँखों को सुकून दें, ऐसे दृश्य हैं।
कानों में रस घोल दे, ऐसा संगीत है।
जीभ को स्वाद दें, ऐसे पदार्थ हैं।
पाँव वहीं टिक जाय, ऐसे महंगे कालीन है।
तिजोरी में सजाने का मन हो जाय, ऐसे रत्न है।
और बस! आँख टिकी कि मन भटका! और मन भटका कि मंज़िल दूर हुई। सारा पुरूषार्थ व्यर्थ हुआ। किनारे पहुँची नैया फिर मंझधार में झकोले खाने लगी। अपना घर फिर अपने से दूर हुआ।
बहुत भटके हो, अब अपने घर को याद करो। याद किया नहीं कि घर हाजिर हुआ नहीं। बस थोडा मन लगाकर याद करने की जरूरत है। थोडी देर अपने मन को उस याद में डूबोने की जरूरत है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

36. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

अपने अतीत का जो व्यक्ति अनुभव कर लेता है, वह वर्तमान में जीना सीख लेता है। वर्तमान कुछ अलग नहीं है। वर्तमान की हर प्रक्रिया मेरे अतीत का हिस्सा बन चुकी है। और एक बार नहीं, बार बार मैं उसे जी चुका हूँ।
मुश्किल यह है कि मुझे उसका स्मरण नहीं है। मैं उस अतीत की यथार्थ कल्पना तो कर सकता हूँ। पर उसे पूर्ण रूप से स्मरण नहीं कर पाता। इस कारण मैं अपने आपको बहुत छोटा बनाता हूँ। मैंने अपने जीवन को कुऐं की भांति संकुचित कर लिया है। वही अपना प्रतीत होता है। उस कुऐं से बाहर के हिस्से को मैं अपना नहीं मानता। क्योंकि यह मुझे ख्याल ही नहीं है कि वह बाहर का हिस्सा भी कभी मेरा रह चुका है।
अतीत में छलांग लगाना अध्यात्म की पहली शुरूआत है। अतीत को जाने बिना मैं वर्तमान को समग्रता से समझ नहीं पाता। और वर्तमान को जाने बिना कोई भविष्य नहीं है। सच तो यह है कि भविष्य कुछ अलग है भी नहीं, वर्तमान ही मेरा भविष्य है।
अपने अतीत को जानने का अर्थ है- अतीत में मैं कहाँ था, मैं क्या था, इसे जान लेना। वह अतीत किसी और का नहीं है, मेरा अपना है। और अतीत होने से वह पराया नहीं हो जाता। उसका अपनत्व मिटा नहीं है। मात्र अतीत हुआ है।
यदि अतीत होने से उसे अपना मानना छोड देंगे तो कुछ जी ही नहीं पायेंगे। क्योंकि अतीत होने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चल रही है। फिर तो अपना कुछ रहेगा ही नहीं। इस जन्म के अतीत को ही अपना नहीं मानना है, अपितु पूर्वजन्मों के संपूर्ण अतीत को अपना अतीत मानना है।
यह भाव प्रकृति के हर अंश से जोड देगा, क्योंकि इस पृथ्वी पर कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, कोई ऐसा आकार नहीं है, कोई ऐसी स्थिति नहीं है, जो कभी न कभी अतीत न रहा हो। मेरी चेतना इस धरती के हर अंश से गुजर चुकी है। तो फिर पूरी पृथ्वी अपनी है। और अपनत्व को थोडा और विस्तार देकर एकाकार हो जाना है।
हर पदार्थ मेरा है और हर पदार्थ मैं हूँ।
पेड पौधे, जीव जन्तु सब में मैं हूँ।
यह अनुभव हमें वर्तमान में जीना सिखाता है। जब सब में मैं ही हूँ, तो उसके प्रति मेरा व्यवहार वैसा ही होना चाहिये, जैसा मैं अपने साथ करता हूँ।
फिर कोई पराया नहीं रहता, फिर कोई शत्रु नहीं रहता।

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

35. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

35.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जीवन सीधी लकीर नहीं है। इसकी पटरी में न जाने कितने ही उल्टे सीधे, दांये बांये मोड बिछे है। मोड मिलने के बाद ही हमें उसका पता चलता है! पहले खबर हो जाय, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
बहुत बार तो ऐसा होता है कि मोड गुजर जाने के बाद ही हमें पता चलता है कि हम किसी मोड से गुजरे हैं। और बहुत बार ऐसा भी होता है कि मोड गुजर जाने के बाद भी हमें पता नहीं चलता कि हम किसी मोड से गुजरे हैं।
भले हमें विभिन्न मोडों से गुजरना पडे पर सर्चलाइट तो एक ही पर्याप्त होती है। ऐसा तो होता नहीं कि दांये जाने के लिये टोर्च  अलग चाहिये और बांये जाना हो तो टाँर्च अलग किस्म की चाहिये। क्योंकि अंतर मात्र दिशा का है। न मुझमें अंतर हुआ है, न राह पर रोशनी डालने वाले में!
इस कारण जीवन एक निर्णय से नहीं चलता। विभिन्न परिस्थितियों में परस्पर विरोधी निर्णय भी लेने होते हैं। कभी प्यार से पुचकारना होता है तो कभी लाल आँखें करते हुए डांटना भी होता है। कभी लेने में आनंद होता है तो कभी देने में भी आनंद का अनुभव होता है। दिखने में भले निर्णय अलग अलग प्रतीत होते हों, पर अन्तर में उनका यथार्थ, निहितार्थ, फलितार्थ एक ही होता है। पुचकारना भी उसी लिये था जिसके लिये डांटना था।
हमें परिस्थितियाँ देख कर निर्णय करना होता है तो परिस्थितियों के आधार पर निर्णय बदलना भी होता है। कभी कभी एक जैसी स्थितियों में भी भिन्न निर्णय करने होते हैं। क्योंकि मुख्यता स्थितियों या परिस्थितियों की नहीं है। मुख्यता है निर्णय की! निर्णय के आधार की! निर्णय के परिणाम की!
परिस्थिति केवल वर्तमान का बोध कराती है। जबकि निर्णय करते वक्त हमें केवल वर्तमान ही देखना नहीं होता। अपनी चकोर आँखों को अतीत में भी भेजना होता है तो आँखें बंद करके भविष्य के परिणाम की भी कल्पना करनी होती है।
निर्णय हमेशा वर्तमान में, वर्तमान के लिये होता है। पर जो तीनों कालों को टटोल कर, तीनों कालों में उसके परिणाम के सुखद किंवा दुखद स्पर्श का अनुभव कर निर्णय करता है, वह जीतता है। विजय की यही परिभाषा है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

34. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

34.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जीवन को हमने दु:खमय बना दिया है। दु:खमय है नहीं, पर सुख की अजीब व्याख्याओं के कारण वैसा हो गया है। हम अपनी ही व्याख्याओं के जाल में फँस गये हैं। जिस जाल में फँसे हैं, उस जाल को हमने ही अपने विचारों और व्याख्याओं से बुना है। इस कारण किसी और को दोष दिया भी नहीं जा सकता। और इस कारण हम अपने ही अन्तर में कुलबुलाते हैं।
हमने अपने जीवन के बारे में एक मानचित्र अपने मानस में स्थिर कर लिया है। और उस मानचित्र में उन्हें बिठा दिया है हमने उन पदार्थों को, परिस्थितियों को, जिनका मेरे साथ कोई वास्ता नहीं है।
जिंदगी भर उस मानचित्र को देखते रहें, उस पर लकीरें खींचते रहें, बनाते रहें, बिगाडते रहें, बदलते रहें, परिवर्तन कुछ नहीं होना। परिवर्तन की आशा और आकांक्षा में जिंदगी पूरी हो जाती है, मानचित्र वैसा ही मुस्कुराता रहता है। फिर वही मानचित्र अगली पीढी के हाथ आ जाता है, वह भी उस धोखे में उलझ कर अपनी जिंदगी गँवा देता है।
हमने अपने मानचित्र में लकीर खींच दी है कि धन आयेगा तो सुख होगा! कुछ समय बाद लकीर बदलते हैं कि इतना धन आयेगा तो सुख होगा।
बदलते समय के साथ यह लकीर बदलती जाती है। इसकी सीमाऐं विस्तृत होती जाती है। आकांक्षा की उस लकीर तक कोई पहुँच ही नहीं पाता। और इस कारण उसे सुख मिल नहीं पाता। एक जिंदगी तो क्या सैंकडों हजारों जिन्दगियाँ क़ुर्बान कर दे, तो भी उस लकीर तक पहुँच नहीं पाता। क्योंकि लकीर स्थिर नहीं है।
अपने मानचित्र में दूसरी लकीर खींचता है- अभी शादी नहीं हुई, इसलिये सुख नहीं है। जब शादी होने के बाद भी सुख नहीं मिलता तो सुख का आधार पुत्र को बनाता है। आधार बदलते जाते हैं। क्योंकि आधार उन्हें बनाता है, जो नहीं है। और इस जगत में ‘है से ‘नहीं है सदैव ज्यादा होता है। वह अधिक है जो नहीं है। तो जो नहीं है, वह कभी भी पूर्ण रूप से है हो नहीं सकता। और इस प्रकार सुख मिल नहीं सकता। सुखी हो नहीं सकता। वह दु:ख में ही अपने जीवन को समाप्त कर डालता है।
सुखी होने का मंत्र एक ही है- सुख का आधार बाहर मत बनाओ। बाहर के द्रव्यों, परिस्थितियों को सुख का कारण मत मानो। अपने मानचित्र में बाहर की लकीरें मत खींचो। जीवन परम आनन्दमय हो जायेगा।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

33. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


एक लघु कथा पढी थी।
एक आदमी सुबह ही सुबह एक लोटे में छास भर कर अपने घर की ओर आ रहा था। रास्ते में उसका दोस्त मिला। उसके पास एक बडे पात्र में दूध था।
उसने कहा- मेरे पास दूध ज्यादा है, थोडा तुम ले लो!
उसने कहा- मुझे भी दूध चाहिये। लाओ, मेरे इस लोटे में डाल दो।
वह दूध उसके लोटे में डाल ही रहा था कि उसकी निगाहें लोटे के भीतर पडी। देखा तो कहा- भैया! इसमें तो छास दिखाई दे रही है। पहले लोटे को खाली करके धो डालो, बाद में दूध डालूंगा।
उसने कहा- नहीं! मुझे छास बहुत प्रिय है। मैं इसका त्याग नहीं कर सकता। मुझे छास भी चाहिये और दूध भी चाहिये। तुम इसी में डाल दो। लोटा आधा खाली है। इतना दूध डाल दो।
उसने कहा- यह मूर्खता की बात है। यदि छास में दूध डाल दिया गया तो दूध भी बेकार हो जायेगा।
उसने कहा- जो होना हो, पर दूध तो इसी में डालना पडेगा। मैं खाली नहीं करूँगा।
वह अपना दूध लेकर रवाना हो गया।
यह कहानी व्यावहारिक जगत में घटी या नहीं, पता नहीं। परन्तु आध्यात्मिक जगत के लिये पूर्णत: सार्थक है।
पीना है दूध तो छास का त्याग करना ही पडेगा! हमें दूध पसंद है। उसे पाना भी चाहते हैं। पाने के बाद पीना भी चाहते हैं। परन्तु उसके अद्भुत स्वाद का हमें पूर्ण अनुभव नहीं है। सुना है बहुत उसके स्वाद के बारे में! पर निज-अनुभव के अभाव में निर्णय नहीं हो पा रहा है।
छास तो सदैव मिली है। इस कारण छास के स्वाद का पता है। अनादि काल से मिलने के कारण उससे दोस्ती भी हो गई है। छास की खटास में भी मिठास के अनुभव की आदत पड गई है। इस कारण वही अच्छी लगती है।
यह छास है- संसार! और दूध है- मुक्ति!
यह तय है कि दूध अच्छा लगना ही पर्याप्त नहीं है। दूध की मिठास प्रिय लगने के साथ साथ छास की खटास हमें अप्रिय लगनी चाहिये।
छोड़नी है संसार की छास! और पाना है मुक्ति का दूध!

रविवार, 5 अगस्त 2012

32. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


हमें मन के अनुसार जीवन का निर्माण नहीं करना है। बल्कि जीवन के लक्ष्य के अनुसार अपने मन का निर्माण करना है।
यह तो तय है कि मन की दिशा के अनुसार ही हमारा आचरण होता है। मन मुख्य है। मन यदि सम्यक् है तो जीवन सम्यक् है! मन यदि विकृत है तो जीवन विकृत है।
मन के अधीन जो जीता है, वह हार जाता है। जो मन को अपने अधीन बनाता है, वह जीत जाता है। मन को अपना मालिक मत बनने दो! वह तो मालिक होने के लिये कमर कस कर तैयार है। वह छिद्र खोजता है। छोटा-सा भी छिद्र मिला नहीं कि उसने प्रवेश किया नहीं! प्रवेश होने के बाद वह राजा भोज बन जाता है।
फिर हमें नचाता है! उलटे सीधे सब काम करवाता है। क्योंकि उसे किसकी परवाह है। वह किसी के प्रति जवाबदेह भी नहीं है। उसे परिणाम भोगने की चिंता भी नहीं है।
वह तो थप्पड मार कर अलग हो जाता है। दूर खडा परिणाम को और परिणाम भोगते तन या चेतन को देखता रहता है। उसे किसी से लगाव भी तो नहीं है। तन का क्या होगा, उसे चिंता नहीं है। चेतना का क्या होगा, उसे कोई परवाह नहीं है। उसे तो केवल अपना मजा लेना है। और सच यह भी है कि हाथ उसके भी कुछ नहीं आता! न पाता है, न खोता है, न रोता है, न सोता है! जैसा था, वैसा ही रहता है।
सुप्रसिद्ध योगीराज श्री आनंदघनजी महाराज कुंथुनाथ परमात्मा की स्तुति करते हुए अपने हृदय को खोलते हैं! मन को समझाते हैं! मन की सही व्याख्या करते हैं! और मन से ऊपर उठकर चेतना के साथ जीने का पुरूषार्थ भी करते हैं, प्रेरणा भी देते हैं!
उन्होंने मन के लिये सांप का उदाहरण दिया है-
सांप खाय ने मुखडुं थोथुं, एह उखाणो न्याय!
सांप किसी को खाता है, तो उसके मुँह में क्या आता है? मुख तो खाली का खाली रहता है। इसी प्रकार का मन है। उसे मिलता कुछ नहीं है। पर दूसरों का बहुत कुछ छीन लेता है। वह रोता नहीं है, परन्तु रूलाने में माहिर है।
जीना है पर मन के अनुसार नहीं! मन को मनाना है, इन्द्रियों के अनुसार नहीं! अपने लक्ष्य के आधार पर! अपनी चेतना के आधार पर!

बुधवार, 1 अगस्त 2012

31. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

घर पुराना था। मालिक उसे सजाने के विचारों में खोया रहता था। पोल में एक पुरानी खटिया पडी थी। कुछ पैसे जुटे थे। वह एक अच्छा कारीगरी वाला लकडी का पलंग ले आया था। पुरानी खटिया को पिछवाडे में डालकर उसे कबाड का रूप दे दिया गया था।

कमरे की शोभा उस पलंग से बढ गई थी। उस पर नई चादर बिछाई गई थी। रोजाना दो बार उसकी साफ सफाई होने लगी थी। बच्चों को उस पलंग के पास आने की भी सख्त मनाई थी। वह मालिक और परिवार उस पलंग को देखता था और सीना तान लेता था। घर आते ही पहले पलंग को देखता था। घर से जाते समय वह पीछे मुड मुड कर पलंग को देखा करता था।

बच्चे उनके जाने की प्रतीक्षा करते थे। उनके जाने के बाद वह पलंग बच्चों की कूदाकूद का साक्षी बन जाता था। एकाध बार उन्हें पता चला तो बच्चों को मेथीपाक अर्पण किया गया था।

पलंग को सजाने के लिये नये तकिये खरीदे गये थे। आस पास के लोग, पडौसी भी इस कलात्मक नये सजे संवरे पलंग को देखे, इस लिये उन्हें एक बाद चाय पर बुलाया गया था।

पलंग के संदर्भ में उनके द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर चाय पानी में हुआ खर्च न केवल दिमाग से निकल गया था बल्कि वह खर्च उसे सार्थक लगा था।

अपने संबंधियों को भी आमंत्रण दिया गया था। उन्हें बडी नजाकत से उस पलंग पर बिठाया गया था। उन्हें कम देर तक बिठाया गया था, ज्यादा देर तक दिखाया गया था। उनकी प्रशंसा भरी आँखों को देख कर उसके मन में गुदगुदी होने लगी थी।

कुछ वर्षों बाद...!

पलंग थोडा पुराना पडने लगा था। रंग बदरंग होने लगा था। उसके पाये थोडा चूं चूं की आवाज करने लगे थे। किसी बुढिया की गर्दन की भाँति वह थोडा डोलने लगा था। अब उसके प्रति जागृति नहीं थी।

बच्चों को उसके पास जाने की अब कोई मनाई नहीं थी। पर बच्चे खुद ही अब उसके पास नहीं जाते थे।

समय थोडा बदला था। एक दिन पलंग को वहाँ से उठा दिया गया और उसे चौक में धर दिया गया। अब उस पर कोई बैठता नहीं था। वह अतिथि की प्रतीक्षा करता रहता मगर कोई उसे पूछता नहीं था। कभी कभार कोई उस पर बैठता तो वह जोर जोर से चूं चूं की आवाज कर अपने हर्ष को अभिव्यक्त करता। उसके हर्ष को हर आदमी समझ नहीं पाता। कोई चीखता, कोई चिल्लाता, कोई नाराज होता, कोई डरता!

कमरे का स्वरूप बदल गया था। उस पलंग का स्थान एक नये विशाल पलंग ने ले लिया था। वह पलंग दूर से अपने स्थान पर आये पलंग को देखता और मन ही मन रोता! कभी यही सजावट मेरी थी। कभी यही दशा मेरी थी। जो ध्यान आज उसका रखा जाता है, कभी उस ध्यान का मालिक मैं था।

पर वह कर कुछ नहीं सकता था। वह केवल चूं चूं ही कर सकता था। हाँलाकि नये पलंग को उसकी चूं चूं अच्छी नहीं लगती थी। वह अपने पर इतराता! अहा! एक वो है, एक मैं हूँ! वो बिचारा चूं चूं करता रहता है।

पर उसकी चूं चूं में एक शाश्वत सत्य छिपा था। वह जानता था कि हर पलंग की यही दशा होनी है। इसलिये वह जोर जोर से चूं चूं करके सावधान करता था। वह कहता था कि अकडो मत!

यह अलग बात है कि समझने वाला ही चूं चूं के रहस्य को समझ सकता है। जो समझ जाता है, वह जाग जाता है।

यह जिन्दगी की कथा है! जागरण की कथा है! समझ की कथा है।

 

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जहाज मंदिर