शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

37. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

अपने घर की खोज हम लम्बे समय से कर रहे हैं। पर मिला नहीं है। इसलिये नहीं कि दूरी बहुत है। दूरी तो जरा भी नहीं है। दूरी तो मात्र इतनी है कि देखा कि पाया!
एक कदम आगे बढाया कि मंज़िल मिली!
हाथ लंबा किया कि द्वार पाया!
दूरी अधिक नहीं है, फिर भी अभी तक अपना घर मिला नहीं है। इसलिये भी नहीं कि हम चले नहीं है। हम बहुत चले हैं। और इतना चले हैं कि थक कर चूर हो गये हैं। गोल गोल चक्कर न मालूम कितने काटे हैं। यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भागने, दौडने में जिन्दगियाँ पूरी हो गई है। जिसे खोजने चले हैं, उसे पाने के लिये तो एक जिंदगी ही पर्याप्त है। यह विडम्बना ही है कि जिसे एक ही जिंदगी में, एक ही जिंदगी से पाया जा सकता है, उसे बहुत सारी जिन्दगियाँ खोने पर भी नहीं पा सके हैं।
चले बहुत हैं, फिर भी नहीं पाया है तो इसका अर्थ है कि कहीं कोई समस्या है! कहीं कोई गलती हो रही है।
दिशा भी सही है। चले भी हम सही दिशा में है। किन्तु बीच में अटक गये हैं। थोडा भटक गये हैं। क्योंकि बीच में बहकाने वाले बहुत दृश्य है। सुन्दर बगीचे हैं। कलकल बहते झरणे हैं।
आँखों को सुकून दें, ऐसे दृश्य हैं।
कानों में रस घोल दे, ऐसा संगीत है।
जीभ को स्वाद दें, ऐसे पदार्थ हैं।
पाँव वहीं टिक जाय, ऐसे महंगे कालीन है।
तिजोरी में सजाने का मन हो जाय, ऐसे रत्न है।
और बस! आँख टिकी कि मन भटका! और मन भटका कि मंज़िल दूर हुई। सारा पुरूषार्थ व्यर्थ हुआ। किनारे पहुँची नैया फिर मंझधार में झकोले खाने लगी। अपना घर फिर अपने से दूर हुआ।
बहुत भटके हो, अब अपने घर को याद करो। याद किया नहीं कि घर हाजिर हुआ नहीं। बस थोडा मन लगाकर याद करने की जरूरत है। थोडी देर अपने मन को उस याद में डूबोने की जरूरत है।