31. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
घर पुराना था। मालिक उसे सजाने
के विचारों में खोया रहता था। पोल में एक पुरानी खटिया पडी थी। कुछ पैसे जुटे थे। वह
एक अच्छा कारीगरी वाला लकडी का पलंग ले आया था। पुरानी खटिया को पिछवाडे में डालकर
उसे कबाड का रूप दे दिया गया था।
कमरे की शोभा उस पलंग से बढ गई
थी। उस पर नई चादर बिछाई गई थी। रोजाना दो बार उसकी साफ सफाई होने लगी थी। बच्चों को
उस पलंग के पास आने की भी सख्त मनाई थी। वह मालिक और परिवार उस पलंग को देखता था और
सीना तान लेता था। घर आते ही पहले पलंग को देखता था। घर से जाते समय वह पीछे मुड मुड
कर पलंग को देखा करता था।
बच्चे उनके जाने की प्रतीक्षा
करते थे। उनके जाने के बाद वह पलंग बच्चों की कूदाकूद का साक्षी बन जाता था। एकाध बार
उन्हें पता चला तो बच्चों को मेथीपाक अर्पण किया गया था।
पलंग को सजाने के लिये नये तकिये
खरीदे गये थे। आस पास के लोग, पडौसी भी इस कलात्मक नये सजे संवरे पलंग को देखे, इस
लिये उन्हें एक बाद चाय पर बुलाया गया था।
पलंग के संदर्भ में उनके द्वारा
की गई प्रशंसा को सुनकर चाय पानी में हुआ खर्च न केवल दिमाग से निकल गया था बल्कि वह
खर्च उसे सार्थक लगा था।
अपने संबंधियों को भी आमंत्रण
दिया गया था। उन्हें बडी नजाकत से उस पलंग पर बिठाया गया था। उन्हें कम देर तक बिठाया
गया था, ज्यादा देर तक दिखाया गया था। उनकी प्रशंसा भरी आँखों को देख कर उसके मन में
गुदगुदी होने लगी थी।
कुछ वर्षों बाद...!
पलंग थोडा पुराना पडने लगा था।
रंग बदरंग होने लगा था। उसके पाये थोडा चूं चूं की आवाज करने लगे थे। किसी बुढिया की
गर्दन की भाँति वह थोडा डोलने लगा था। अब उसके प्रति जागृति नहीं थी।
बच्चों को उसके पास जाने की अब
कोई मनाई नहीं थी। पर बच्चे खुद ही अब उसके पास नहीं जाते थे।
समय थोडा बदला था। एक दिन पलंग
को वहाँ से उठा दिया गया और उसे चौक में धर दिया गया। अब उस पर कोई बैठता नहीं था।
वह अतिथि की प्रतीक्षा करता रहता मगर कोई उसे पूछता नहीं था। कभी कभार कोई उस पर बैठता
तो वह जोर जोर से चूं चूं की आवाज कर अपने हर्ष को अभिव्यक्त करता। उसके हर्ष को हर
आदमी समझ नहीं पाता। कोई चीखता, कोई चिल्लाता, कोई नाराज होता, कोई डरता!
कमरे का स्वरूप बदल गया था। उस
पलंग का स्थान एक नये विशाल पलंग ने ले लिया था। वह पलंग दूर से अपने स्थान पर आये
पलंग को देखता और मन ही मन रोता! कभी यही सजावट मेरी थी। कभी यही दशा मेरी थी। जो ध्यान
आज उसका रखा जाता है, कभी उस ध्यान का मालिक मैं था।
पर वह कर कुछ नहीं सकता था। वह
केवल चूं चूं ही कर सकता था। हाँलाकि नये पलंग को उसकी चूं चूं अच्छी नहीं लगती थी।
वह अपने पर इतराता! अहा! एक वो है, एक मैं हूँ! वो बिचारा चूं चूं करता रहता है।
पर उसकी चूं चूं में एक शाश्वत
सत्य छिपा था। वह जानता था कि हर पलंग की यही दशा होनी है। इसलिये वह जोर जोर से चूं
चूं करके सावधान करता था। वह कहता था कि अकडो मत!
यह अलग बात है कि समझने वाला
ही चूं चूं के रहस्य को समझ सकता है। जो समझ जाता है, वह जाग जाता है।
यह जिन्दगी की कथा है! जागरण
की कथा है! समझ की कथा है।