बुधवार, 25 जुलाई 2012

20 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

20  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जीवन को हम गणित से जोड कर जीते हैं। गणित की फ्रेम में ही हमारी सोच गति करती है। अतीत से प्रेरणा लेनी हो, वर्तमान का निर्धारण करना हो या भविष्य की आशा भरी कल्पनाओं में डुबकी लगानी हो, हमारे सोच की भाषा गणित में ही डूबी होती है।
जीवन गणित नहीं है। इसे गणित के आधार पर जीया नहीं जा सकता। आज उसने 1000 रूपये कमाये हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कल भी वह इतना ही कमायेगा। वह ज्यादा भी कमा सकता है, कम भी!
पर सोच ऐसी ही होती है। यह जानने पर भी कि यह संभव नहीं है। उसका अतीत उसकी गणित को प्रमाणित नहीं करता। फिर भी उसकी आशा भरी सोच उसी गणित से चलती है। यही उसके जीवन का सबसे बडा धोखा है।
वह एक दिन के आधार पर एक मास की उपलब्धि और उसके आधार पर वर्ष भर की उपलब्धि के मीठे सपनों में खो जाता है।
आज मैंने 500 कमाये हैं तो एक माह में 15 हजार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हजार कमा लूंगा। पाँच वर्ष में तो नौ लाख कमा लूंगा।
अभी पाँच वर्ष बीते नहीं है। कमाई हुई नहीं है। होगी भी या नहीं, पता नहीं है। पर नौ लाख के उपयोग की मधुर कल्पनाओं में वह खो जाता है।
गणित में डूबे विचार हर क्षेत्र में करता है। एक घंटे में यदि पाँच किलोमीटर मैं चलता हूँ तो पाँच घंटे में 25 किलोमीटर चलूंगा। वह यह गणित करते समय यह भूल जाता है कि आदमी कोई मशीन तो है नहीं, कि एक जैसी गति कायम रख सके। उसके पाँच थकेंगे, उसका मन थकेगा, विश्राम लेगा। और गति कम हो जायेगी।
कुछ बातों में गणित का मेल बैठता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हर बात में उसकी भाषा सार्थक हो। दस रूपये में एक किलो सब्जी मिलती है तो यह तय है कि सौ रूपये में दस किलो सब्जी बनेगी। पर इसका अर्थ यह नहीं होता कि जीवन के हर क्षेत्र में यह तर्क काम देता हो।
बचपन में प्रश्नों का एक क्रम सुना करते थे कि सौ मजदूर एक मकान को 12 माह में बनाते हैं तो दो सौ मजदूर मिलकर उसी मकान को कितने समय में बनायेंगे?
गणित के नियमों के आधार पर इसका उत्तर स्पष्ट है कि छह माह लगने चाहिये। प्रश्न फिर दोहराया जाय- कि चार सौ मजदूर काम करेंगे तो कितना समय लगेगा? उत्तर मिलेगा- तीन महिने!
इस तर्क के आधार पर तो 7200 मजदूर यदि मिल जाय तो मात्र पाँच दिन का ही समय लगना चाहिये! और यदि 8 लाख 64 हजार मजदूर तो उसी मकान को सिर्फ एक घंटे में बना देंगे!
यथार्थ में क्या यह संभव है? नहीं! क्योंकि गणित की अपनी सीमा है। जबकि जीवन का अपना अलग गणित है। जो गणित जैसा दिखाई नहीं देता, फिर भी होता उसमें गणित ही है।
और उसकी गणित का आधार हमारा अपना जीवन है। जीवन ही जीवन का निर्माण करता है। पूर्व जीवन वर्तमान जीवन का निर्माण करता है। पूर्व जीवन का गणित ही हमारे वर्तमान जीवन की गणित का निर्धारण करता है।
हमें बाह्य गणित में नहीं उलझना है। क्योंकि वह यथार्थ नहीं है। उस गणित से सपने देखे जा सकते हैं। सपनों को सपना मानें तो तो अच्छा है। पर ज्योंहि सपने को यथार्थ मानना शुरू किया कि धोखा शुरू हो जाता है।
उस धोखे से बचना है। इसी में यथार्थता का बोध है।