बुधवार, 25 जुलाई 2012

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जिन्दगी प्रतिक्षण मौत की ओर अग्रसर हो रही है। बीतते हर पल के साथ हम मर रहे हैं। इस जगत में हमारा अस्तित्व कितना छोटा और बौना है....!
सारी दुनिया के बारे में पता रखने वाले हम अपने बारे में कितने अनजान है! हमें अपने ही कल का पता नहीं है। कल मेरा अस्तित्व रहेगा या मैं इस दुनिया से विदा हो जाउँगा, हमें पता नहीं है।
सोचने के क्षणों में हम अपने भविष्य को कितना लम्बा आंकते हैं! और अपने उस अनजान भविष्य के लिये कितने सपने देखते हैं! उन सपनों को पूरा करने के लिये बिना यह जाने कि वे सपने पूरे होंगे भी या नहीं या उन सपनों के परिणाम जानने के लिये मैं रहूँगा भी या नहीं, कितनी तनतोड मेहनत करते हैं!
उर्दु शायर की एक कविता का यह वाक्य कितना मार्मिक संदेश दे रहा है-
सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं!
इकट्ठा करने में हमारे मन का कोई सानी नहीं है। वह मात्र एकत्र करना जानता है। क्योंकि उपभोग की तो सीमा है! एकत्र करने की कोई सीमा नहीं है। एक यथार्थ है, एक सपना है। यथार्थ की सीमा होती है, सपनों की कोई सीमा नहीं होती!
खबर हमें आने वाले पल की भी नहीं है और जीते हैं ऐसे सैंकड़ों साल और जीना है। जानते हैं कि नहीं जीना है! चले जाना है! पर यह जानकारी हमारे जीवन में नहीं उतर पाती।
और उस छूट जाने वाली दुनिया के निर्माण में हम अपनी कितनी ताकत लगाते है! कितना क्रोध करते हैं! कितना राग-द्वेष करते हैं! कितना मिथ्या वचनों का प्रयोग करते है! कितना धोखा देते हैं!
खून पसीना एक कर बनाई... बसाई यह दुनिया पल भर में हमारे लिये बेगानी बन जाती है। एक नये अनजान सफर के लिये हम निकल पडते हैं! वहाँ फिर एक नई दुनिया बनाने... बसाने के सपने देखने प्रारंभ करते है।
बस! यही तो है हमारा जीवन! दुनिया बनाना... छोड कर चल देना.... फिर दुनिया बनाना... छोड कर चल देना! फिर मकान, दुकान, परिवार, शत्रु, मित्र, तेरा, मेरा करते हुए दुनिया का निर्माण! हम अनंत काल से यही करते आ रहे हैं। अपने जीवन के साथ अपने ही द्वारा हो रहे इस मजाक को हमने अभी तक समझा नहीं है।
जीना है अपने लिये! उसके लिये नहीं, जिसे छोड देना है! बल्कि उसके लिये जो मेरा सदा का साथी है! जो कभी न अलग हुआ है... न होगा!

जीना है तुमको यहाँ, आतम हेतु विचार!
पुद्गल तो पर द्रव्य है, तज उसका विस्तार।।