हमने अपने चित्त का अतिविस्तार
किया है। विस्तार की चाह में दौड लगाते चले जा रहे हैं। इस अति सुदीर्घ दौड का परिणाम
केवल जमीन मापना है। जमीन मापने के सिवाय हमने और कुछ नहीं किया है। पाया कुछ भी नहीं
है। प्राप्ति के नाम पर शून्य है। पीछे की दौड का परिणाम शून्य प्रतीत होने पर भी आगे
पाने की चाह में दौड और ज्यादा तीव्र हो रही है।
जन्मों जन्मों से दौडने का ही
उपाय, अभ्यास कर रहे हैं। अपनी क्षमता मापने का समय कहाँ है हमारे पास? इसलिये क्षमता
से अधिक दौड जारी है। उस दौड में हम अपने अस्तित्व को खो बैठे है। क्योंकि नजर अस्तित्व
नहीं आता! जिसके लिये दौड रहे है, वही आता है।
और जिसके लिये दौड रहे है, उसमें
इतना मशगूल हुए जा रहे हैं कि जो दौड रहा है, उसकी ओर से आँखें मूंद ली है। ‘दौडने
वाला कितना थक गया है, कितना परेशान हो उठा है इस गोल गोल घूमने की जिंदगी से! इस
ओर हमारा कोई लक्ष्य ही नहीं है।
‘वह’ थक गया है पर हमें थकान का अनुभव
नहीं है। थकान का अनुभव हो तो विश्राम की भूमिका बने! थकान का अनुभव हो तो पसीना पोंछने
का भाव पैदा हो! थकान का अनुभव हो तो थकान मिटाने की व्यवस्था का लक्ष्य बने!
हाँ! हम घूम ही रहे हैं निरूद्देश्य!
एक जन्म से दूसरे जन्म के लिये! हर जन्म में वही व्यवस्था! परिवार, सत्ता, धन, साधन,
सुविधा! पहले बटोरना, बटोरने के लिये लडाई, माया, कपट! और फिर उसके संग्रह और विस्तार
का लोभ! फिर उसके लिये मान, अहंकार का अनुभव!
हमारी जिंदगी यों गोल गोल घूमती
जाती है। आँख बंद किये चलते जाते हैं इस अभीप्सा में कि मैं कितना आगे बढ गया हूँ!
पर जब आँख खुलती है तो पता लगता है कि मैं वहीं था, जहाँ से चला था!
सारी दौड व्यर्थ हुई है। पसीना
बहुत बहा, पर पहुँचे कहीं भी नहीं!
दौड लगे अपनी दिशा में तो एक
ही दौड सारी दौडों का अन्त करने वाली हो जाय! मालिक को मालिक की ही दिशा में मालिक
को पाने के लिये ही मालिक होकर ही दौडना है। यही दौड थकान मिटाती है।
आपाधापी से सदा, बहुत बढा संसार।
दौड लगे निज आत्म की, तो हो निज
उद्धार।।