शनिवार, 21 जुलाई 2012

11 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जिंदगी हम जीते जाते हैं, यह विचार किये बिना कि हमें क्या करना चाहिये.... क्या नहीं करना चाहिये...? करने या नहीं करने का निर्णय करने से पहले अपनी सोच का उस संदर्भ में विकास अत्यंत जरूरी होता है। उसके अभाव में हमारे निर्णय हमारे ही दर्द का कारण बन जाते हैं।
हम दूसरों के निर्णय से उतना दुखी नहीं होते, जितना अपने निर्णय से होते हैं।
क्योंकि दूसरों के निर्णय पर दर्द का अनुभव करते समय हमारे पास बचाव का एक लबादा भी होता है कि यह निर्णय मेरा नहीं है, उसका है... मैं क्या कर सकता था। दूसरों को दोषी ठहराकर अपने मन में संतोष का अनुभव किया जा सकता है।
पर खुद के निर्णय पर रोते समय कोई आँसू पौंछने वाला नहीं होता। क्योंकि दोष का टोपला किसी और पर ढोला नहीं जा सकता, जब निर्णय हमने ही किया होता है।
इसका मूल कारण हमारी जल्दबाजी होती है। क्षण भर का विचार हमारी समूचे भविष्य को प्रभावित कर सकते है। उसकी दिशा बदलने में निमित्त हो सकते हैं।
इसलिये करने से पहले रूकना जरूरी होता है। रूक कर... ठहर कर.. कुछ देर शांत चित्त से अतीत और भविष्य में छलांग लगा कर पहुँचना जरूरी होता है। अतीत से सीख लेनी होती है, और भविष्य में परिणति का पूर्वाभास करना होता है।
जब काल के उस खण्ड में पहुँच कर गवेषणा पूर्वक विश्लेषण होता है, तो निश्चित ही हमें ‘करने की दिशा मिल जाती है। तब करने का निर्णय भी सार्थक हो जाता है और न करने का निर्णय भी हमें उतना ही संतोष दे जाता है।
जिंदगी के इस निष्कर्ष को अपने रोम रोम में समेट लेना चाहिये कि निर्णय सदैव शांत क्षणों में हो, आवेश, आवेग या आक्रोश के भावों में नहीं!

मानवता के हेतु से, करो आत्म बलिदान।
मरना तो सबको मणि, ये मरना है महान्।।